Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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संध्या का समय है। आकाश पर लालिमा छाई हुई है और मंद वायु गंगा की लहरों पर क्रीड़ा कर रही है, उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेत्रों से मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंस पड़ती है, तब उसके मोती के दांत चमक उठते हैं। सदन का रमणीय झोंपड़ा आज फूलों और लताओं से सजा हुआ है। दरवाजों पर मल्लाहों की भीड़ है। अंदर उनकी स्त्रियां बैठी सोहर गा रही हैं। आंगन में भट्ठी खुदी हुई है और बड़े-बड़े हंडे चढ़े हुए हैं। आज सदन के नवजात पुत्र की छठी है, यह उसी का उत्सव है।

लेकिन सदन बहुत उदास दिखाई देता है। वह सामने के चबूतरे पर बैठा हुआ गंगा की ओर देख रहा है। उसके हृदय में भी विचार की लहरें उठ रही हैं। ना! वे लोग न आएंगे। आना होता तो आज छह दिन बीत गए, आ न जाते? यदि मैं जानता कि वे न आएंगे, तो मैं चाचा से भी यह समाचार न कहता। उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है, वे मुझसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते। मैं जीऊं या मरूं, उन्हें परवाह नहीं है। लोग ऐसे अवसर पर अपने शत्रुओं के घर भी जाते हैं। प्रेम से न आते, दिखावे के लिए आते, व्यवहार के तौर पर आते– मुझे मालूम तो हो जाता कि संसार में मेरा कोई है। अच्छा न आएं, इस काम से छुट्टी मिली, तो एक बार मैं स्वयं जाऊंगा और सदा के लिए निपटारा कर आऊंगा। लड़का कितना सुंदर है, कैसे लाल-लाल होंठ हैं। बिल्कुल मुझी को पड़ा है। हां, आंखें शान्ता की हैं। मेरी ओर कैसे ध्यान से टुक-टुक ताकता था। दादा को तो मैं नहीं कहता, लेकिन अम्मा उसे देखें तो एक बार गोद में अवश्य ही ले लें। एकाएक सदन के मन में यह विचार हुआ, अगर मैं मर जाऊं तो क्या हो? इस बालक का पालन कौन करेगा? कोई नहीं। नहीं, मैं मर जाऊं तो दादा को अवश्य उस पर दया आएगी। वह इतने निर्दय नहीं हो सकते। जरा देखूं। सेविंग बैंक में मेरे कितने रुपए हैं। अभी तक हजार भी पूरा नहीं। ज्यादा नहीं, अगर पचास रुपए महीना भी जमा करता जाऊं, तो साल भर में छह सौ रुपए हो जाएंगे। ज्योंही दो हजार पूरे हो जाएंगे, घर बनवाना शुरू कर दूंगा। दो कमरे सामने, पांच कमरे भीतर, दरवाजे पर मेहराबदार सायवान, पटाव के ऊपर दो कमरे हों तो मकान अच्छा हो। कुर्सी ऊंची रहने से घर की शोभा बढ़ जाती है, कम-से-कम पांच फुट की कुर्सी दूंगा।

सदन इन्हीं कल्पनाओं का आनंद ले रहा था। चारों ओर अंधेरा छाने लगा था कि इतने में उसने सड़क की ओर से एक गाड़ी आती देखी। उसकी दोनों लालटेनें बिल्ली की आंखों की तरह चमक रही थीं। कौन आ रहा है? चाचा साहब के सिवा और कौन होगा? मेरा और है ही कौन? इतने में गाड़ी निकट आ गई और उसमें से मदनसिंह उतरे। इस गाड़ी के पीछे एक और गाड़ी थी। सुभद्रा और भामा उसमें से उतरीं। सदन की दोनों बहनें भी थीं। जीतन कोचबक्स पर से उतरकर लालटेन दिखाने लगा। सदन इतने आदमियों को उतरते देखकर समझ गया कि घर के लोग आ गए, पर वह उनसे मिलने के लिए नहीं दौड़ा। वह समय बीत चुका था, जब वह उन्हें मनाने जाता। अब उसके मान करने का समय आ गया था। वह चबूतरे पर से उठकर झोंपड़े में चला गया, मानो उसने किसी को देखा ही नहीं। उसने मन में कहा, ये लोग समझते होंगे कि इनके बिना मैं बेहाल हुआ जाता हूं, पर उन्हें जैसे मेरी परवाह नहीं, उसी प्रकार मैं भी इनकी परवाह नहीं करता।

सदन झोंपड़े में जाकर ताक रहा था कि देखें ये लोग क्या करते हैं। इतने में उसने जीतन को दरवाजे पर आकर पुकारते हुए देखा। कई मल्लाह इधर-उधर से दौड़े। सदन बाहर निकल आया और दूर से ही अपनी माता को प्रणाम करके किनारे खड़ा हो गया।

मदनसिंह बोले– तुम तो इस तरह खड़े हो, मानों हमें पहचानते ही नहीं। मेरे न सही, पर माता के चरण छूकर आशीर्वाद तो ले लो।

सदन– मेरे छू लेने से आपका धर्म बिगड़ जाएगा।

मदनसिंह ने भाई की ओर देखकर कहा– देखते हो इसकी बात। मैं तो तुमसे कहता था कि वह हम लोगों को भूल गया होगा, लेकिन तुम खींच लाए। अपने माता-पिता को द्वार पर खड़े देखकर भी इसे दया नहीं आती।

भामा ने आगे बढ़कर कहा– बेटा सदन दादा के चरण छुओ, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो।

सदन अधिक मान न कर सका। आंखों में आंसू भरे पिता के चरणों पर गिर पड़ा। मदनसिंह रोने लगे।

इसके बाद वह माता के चरणों पर गिरा। भामा ने उठाकर छाती से लगा लिया और आशीर्वाद दिया।

प्रेम, भक्ति और क्षमा का कैसा मनोहर, कैसा दिव्य, कैसा आनंदमय दृश्य है। माता-पिता का हृदय प्रेम से पुलकित हो रहा है और पुत्र के हृदयसागर में भक्ति की तरंगें उठ रही हैं। इसी प्रेम और भक्ति की निर्मल ज्योति से हृदय की अंधेरी कोठरियां प्रकाशपूर्ण हो गई हैं। मिथ्याभिमान और लोक-लज्जा या भयरूपी कीट-पतंग वहां से निकल गए हैं। अब वहां न्याय, प्रेम और सद्व्यवहार का निवास है।

आनंद के मारे सदन के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वह अब मल्लाहों को कोई-न-कोई काम करने को हुक्म देकर दिखा रहा है कि मेरा वहां कितना रोब है। कोई चारपाई निकालने जाता है, कोई बाजार दौड़ा जाता है कि मदनसिंह फूले नहीं समाते और अपने भाई के कानों में कहते हैं, सदन तो बड़ा चतुर निकला। मैं तो समझता था, किसी तरह पड़ा दिन काट रहा होगा, पर यहां तो बड़ा ठाट है।

इधर भामा और सुभद्रा भीतर गईं। भामा चारों ओर चकित होकर देखती थी। कैसी सफाई है। सब चीजें ठिकाने से रखी हुई हैं! इसकी बहन गुणवान मालूम होती है।

वे सौरीगृह में गईं तो शान्ता ने अपनी दोनों सासों के चरण-स्पर्श किए। भामा ने बालक को गोद में ले लिया। उसे ऐसा मालूम हुआ, मानों वह कृष्ण का ही अवतार है। उसकी आंखों में आनंद के आंसू बहने लगे।

थोड़ी देर में उसने मदनसिंह से आकर कहा– और जो कुछ हो, पर तुमने बहू बड़ी रूपवती पाई है। गुलाब का फूल है और बालक तो साक्षात् भगवान् का अवतार ही है।

मदनसिंह– ऐसा तेजस्वी न होता, तो मदनसिंह को खींच कैसे लाता?

भामा– बहू बड़ी सुशील मालूम होती है।

मदनसिंह– तभी तो सदन ने उसके पीछे मां-बाप को त्याग दिया था। सब लोग अपनी-अपनी धुन में मग्न थे, पर किसी को सुधि न थी कि अभागिन सुमन कहां है?

सुमन गंगातट पर संध्या करने गई थी। जब वह लौटी तो उसे झोंपड़े के द्वार पर गाड़ियां खड़ी दिखाई दीं। दरवाजे पर कई आदमी बैठे थे। पद्मसिंह को पहचाना। समझ गई कि सदन के माता-पिता आ गए। वह आगे न बढ़ सकी। उसके पैरों में बेड़ी-सी पड़ गईं। उसे मालूम हो गया कि अब यहां मेरे लिए स्थान नहीं है, अब यहां से मेरा नाता टूटता है। वह मूर्तिवत खड़ी सोचने लगी कि कहां जाऊं?

इधर एक मास से शान्ता और सुमन में बहुत मनमुटाव हो गया था। वही शान्ता जो विधवा-आश्रम में दया और शांति की मूर्ति बनी हुई थी, अब सुमन को जलाने और रुलाने पर तत्पर रहती थी। उम्मीदवारी के दिनों में हम जितने विनयशील और कर्त्तव्य-परायण होते हैं, उतने ही अगर जगह पाने पर बने रहे, तो हम देवतुल्य हो जाएं। उस समय शान्ता को सहानुभूति की जरूरत थी, प्रेम की आकांक्षा ने उसके चित्त को उदार, कोमल, नम्र बना दिया था, पर अब अपना प्रेमरत्न पाकर किसी दरिद्र से धनी हो जाने वाले मनुष्य की भांति उसका हृदय कठोर हो गया था। उसे भय खाए जाता था कि सदन कहीं सुमन के जाल में न फंस जाए। सुमन के पूजा-पाठ, श्रद्धा-भक्ति का उसकी दृष्टि में कुछ भी मूल्य न था। वह इसे पाखंड समझती थी। सुमन सिर में तेल मलने या साफ कपड़ा पहनने के लिए तरस जाती थी, शान्ता इसे समझती थी। वह सुमन के आचार-व्यवहार को बड़ी तीव्र दृष्टि से देखती रहती थी। सदन से जो कुछ कहना होता, सुमन शान्ता से कहती। यहां तक कि शान्ता भोजन के समय भी रसोई में किसी-न-किसी बहाने आ बैठती थी। वह अपने प्रसवकाल के पहले सुमन को किसी भांति वहां से टालना चाहती थी, क्योंकि सौरीगृह में बंद होकर सुमन की देख-भाल न कर सकेगी। उसे और सब कष्ट सहना मंजूर था, पर यह दाह न सही जाती थी।

लेकिन सुमन सब कुछ देखते हुए भी न देखती थी, सब कुछ सुनते हुए भी कुछ न सुनती थी। नदी में डूबते हुए मनुष्य के समान वह इस तिनके के सहारे को ही छोड़ सकती थी। वह अपना जीवन मार्ग स्थिर न कर सकती थी, पर इस समय सदन के माता-पिता को यहां देखकर उसे यह सहारा छोड़ना पड़ा। इच्छा-शक्ति जो कुछ न कर सकती थी, वह इस अवस्था ने कर दिखाया।

वह पांव दबाती हुई धीरे-धीरे झोंपड़े के पिछवाड़े आई और कान लगाकर सुनने लगी कि देखूं ये लोग मेरी कुछ चर्चा तो नहीं कर रहे हैं। आध घंटे तक वह इसी प्रकार खड़ी रही। भामा और सुभद्रा इधर-उधर की बातें कर रही थीं। अंत में भामा ने कहा– क्या अब इसकी बहन यहां नहीं रहती?

सुभद्रा– रहती क्यों नहीं, वह कहां जाने वाली है?

भामा– दिखाई नहीं देती।

सुभद्रा– किसी काम से गई होगी। घर का सारा काम तो वही संभाले हुए है।

भामा– आए तो कह देना कि कहीं बाहर लेट रहे। सदन उसी का बनाया खाता होगा?

शान्ता सौरीगृह में से बोली– नहीं, अभी तक तो मैं ही बनाती रही हूं। आजकल वह अपने हाथ से बना लेते हैं।

भामा– तब भी घड़ा-बर्तन तो वह छूती ही रही होगी। यह घड़ा फिंकवा दो, बर्तन फिर से धुल जाएंगे।

सुभद्रा– बाहर कहां सोने की जगह है?

भामा– हो चाहे न हो, लेकिन यहां मैं उसे न सोने दूंगी। वैसी स्त्री का क्या विश्वास?

सुभद्रा– नहीं दीदी, वह अब वैसी नहीं है। वह बड़े नेम-धरम से रहती है।

भामा– चलो, वह बड़ी नेम-धरम से रहने वाली है। सात घाट का पानी पी के आज नेम वाली बनी है। देवता की मूरत टूटकर फिर नहीं जुड़ती। वह अब देवी बन जाए, तब भी मैं विश्वास न करूं।

सुमन इससे ज्यादा न सुन सकी। उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो किसी ने लोहा लाल करके उसके हृदय में चुभा दिया। उल्टे पांव लौटी और उसी अंधकार में एक ओर चल पड़ी।

अंधेरा खूब छाया था, रास्ता भी अच्छी तरह न सूझता था, पर सुमन गिरती-पड़ती चली जाती थी, मालूम नहीं कहां, किधर? वह अपने होश में न थी। लाठी खाकर घबराए हुए के समान वह मूर्च्छावस्था में लुढ़कती जा रही थी। संभलना चाहती थी, पर संभल न सकती थी। यहां तक कि उसके पैरों में एक बड़ा-सा कांटा चुभ गया वह पैर पकड़कर बैठ गई। चलने की शक्ति न रही।

उसने बेहोशी के बाद होश में आने वाले मनुष्य के समान इधर-उधर चौंककर देखा। चारों ओर सन्नाटा था। गहरा अंधकार छाया हुआ था। केवल सियार अपना राग अलाप रहे थे। यहां मैं अकेली हूं, यह सोचकर सुमन के रोएं खड़े हो गए। अकेला-मन किसे कहते हैं, यह उसे आज मालूम हुआ। लेकिन यह जानते हुए भी कि यहां कोई नहीं हैं, मैं ही अकेली हूं, उसे अपने चारों ओर, नीचे-ऊपर नाना प्रकार के जीव आकाश में चलते हुए दिखाई देते थे। यहां तक कि उसने घबड़ाकर आंखें बंद कर लीं। निर्जनता कल्पना को अत्यंत रचनाशील बना देती है।

सुमन सोचने लगी, मैं कैसी अभागिन हूं और तो और, सगी बहन भी अब मेरी सूरत नहीं देखना चाहती। उसे कितना अपनाना चाहा, पर वह अपनी न हुई। मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और वह अब धोने से नहीं धुल सकता। मैं उसको या किसी को दोष क्यों दूं? यह सब मेरे कर्मों का फल है। आह! एंड़ी में कैसी पीड़ा हो रही है, यह कांटा कैसे निकलेगा? भीतर उसका एक टुकड़ा टूट गया है। कैसा टपक रहा है, नहीं, मैं किसी को दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किए हैं, उनका फल कौन भोगेगा? विलास-लालसा ने मेरी यह दुर्गति की। कैसी अंधी हो गई थी, केवल इंद्रियों के सुखभोग के लिए अपनी आत्मा का नाश कर बैठी। मुझे कष्ट अवश्य था। मैं गहने-कपड़े को तरसती थी, अच्छे भोजन को तरसती थी, प्रेम को तरसती थी। उस समय मुझे अपना जीवन दुखमय दिखाई देता था, पर वह अवस्था भी तो मेरे पूर्वजन्म के कर्मों का फल थी और क्या ऐसी स्त्रियां नहीं हैं, जो उससे कहीं अधिक कष्ट झेलकर भी अपनी आत्मा की रक्षा करती हैं? दमयंती पर कैसे-कैसे दुख पड़े, सीता को रामचन्द्र ने घर से निकाल दिया, वह बरसों जंगलों में नाना प्रकार के क्लेश उठाती रहीं, सावित्री ने कैसे-कैसे दुःख सहे, पर वह धर्म पर दृढ़ रहीं। उतनी दूर क्यों जाऊं मेरे ही पड़ोस में कितनी स्त्रियां रो-रोकर दिन काट रही थीं। अमोला में वह बेचारी अहीरिन कैसी विपत्ति झेल रही थी। उसका पति परदेश से बरसों न आता था, बेचारी उपवास करके पड़ी रहती थी। हाय, इतनी सुंदरता ने मेरी मिट्टी खराब की। मेरे सौन्दर्य के अभिमान ने मुझे यह दिन दिखाया।

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